पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४५
रमैणी

भाव भगति की सेवा मांनैं,सतगुर प्रगट कहै नहीं छांनैं ।।
अनभै उपजि न मन ठहराई,परकीरति मिलि मन न समाई ॥
जब लग भाव भगति नहीं करिहौं,तब लग भवसागर क्यूं तिरिहौं॥
  भाव भगति बिसवास बिन,कटै न संसै सूल ।
  कहै कबीर हरि भगति बिन,मूकति नहीं रे मूल ॥

_____