पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३३५

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२५१
परिशिष्ट

काया कजली बन भया मन कुंजर मयमंतु।
अंक सुज्ञान रतन है खेवट बिरला संतु ॥ २४ ॥
काया काची कारवी काची केवल धातु।
साबतु रख हित राम तनु नाहि त बिनठी बात ।। २५ ॥
कारन बपुरा क्या करै जौ राम न करै सहाइ ।
जिह जिह डाली पग धरौं सोई मुरि मुरि जाइ ॥ २६ ॥
कबोर कारन सो भयो जो कीनो करतार ।
तिसु बिनु दुसर का नहीं एकै सिरजनुहार ॥ २७ ॥
कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल ।
पाछै कळू न होइगा जो सिर पर प्रावै काल ॥ २८॥
कीचड़ आटा गिरि परसा किछू न आयो हाथ ।
पीसत पीसत चाबिया सोई निबह्या साथ ॥२६॥
फबोर कूकरु भौकता कुरंग पिछै उठि धाइ।
कर्मी सति गुरु पाइया जिन हौ लिया छड़ाइ ॥ ३० ॥
कबीर काठी काठ की दह दिसि लागी आगि।
पंडित पंडित जल मुये मुरख उबरे भागि ।। ३१ ।।
कोठे मंडप हेतु करि काहे मरहु सवारि ।
कारज साढ़े तीन हथ धनी त पौने चारि ॥ ३२ ।।
कौड़ी कौड़ी जोरि के जोरे लाख करोरि ।
चलती बार न कछु मिल्यो लई लँगोटी तोरि ॥ ३३ ॥
खिंथा जलि कोइला भई खापर फूटम फूट ।
जोगी बपुड़ा खेलियो आसनि रही बिभूति ॥ ३४ ॥
खूब खाना खीचरी जामै अमृत लोन ।
हेरा रोटी कारने गला कटावै कौन ॥ ३५ ॥
गंगा तीर जु घर करहि पीवहि निर्मल नीर ।
बिनु हरि भगत न मुकति होइ यों कहि रमे कबीर ॥ ३६॥