पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३३७

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परिशिष्ट

चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारै ।
जैसे बच रहि कुंज मन माया ममता रे ॥ ५० ॥
चोट सहेली सेल की लांगत लेइ उसास ।
चोट सहारै सबद की तासु गुरू मैं दास ॥ ५१ ॥
जग काजल की कोठरी अंध परे तिस मांहि ।
हौं बलिहारी तिन्न की पैसि जु नीकसि जाहि ॥ ५२ ॥
जग बांध्यो जिह जेवरी तिह मत बँधहु कबीर ।
जैहहि आटा लोन ज्यों सोन समान शरीर ।। ५३ ॥
जग मैं चेत्यो जानि कै जग मैं रह्यो समाइ।
जिन हरि नाम न चेतियो बादहि जनमे आहि ।। ५४ ॥
'कबीर जहं जहं हौं फिरसो कौतक ठाओ ठाइ ।
इक राम सनेही बाहरा ऊजरु मेरे भांइ ॥ ५५ ॥
कबीर जाको खोजते पायो सोई ठौर ।
सोई फिरि के तू भया जाकौ कहता और ।। ५६ ॥
जाति जुलहा क्या करै हिरदै बसे गुपाल ।
कबीर रमइया कंठ मिल चूकहि सब जंजाल ।। ५७ ।।
कबीर जा दिन है। मुत्रा पाछै भया अनंदु।
मोहि मिल्यो प्रभु आपना संगी भजहि गोबिंदु ।। ५८ ॥
जिह दर आवत जातहु हटकै नाही कोइ ।
सो दरु कैसे छोड़ियै जौ दरु ऐसा होइ ॥ ५६ ।।
जीय जो मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु ।
दफतर ई जब काढिहै होइगा कौन हवालु ।। ६० ।।
कबीर जेते पाप किये राखे तलै दुराइ ।
परगट भये निदान सब जब पूछे धर्मराइ ॥ ६१ ॥
जैसी उपजी पेड़ ते जौ तैसी निबहै ओड़ि।
हीरो किसका बापुरा पुजहि न रतन करोड़ि ॥ ६२ ॥