पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३३९

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२५५
परिशिष्ट

कबीर तासों प्रीति करि जाको ठाकुर राम ।
पंडित राजे भूपती आवहि कौने काम ॥ ७६ ॥
तूंतूं करता तूं हुआ मुझ में रही न हूं।
जब आपा पर का मिटि गया जित देखौं तित तूं ॥ ७७ ॥
थूनी पाई थिति भई सति गुरु बंधी धीर ।
कबीर हीरा बनजिया मानसरोवर तीर ॥ ७८ ॥
कबीर थोड़े जल माछुली झीवर मेल्यो जाल ।
इहटौ घनै न छूटिसहि फिरि करि समुद सम्हालि ।। ७६ ।।
कबीर देखि कै किह कहौ कहे न को पतिआइ ।
हरि जैसा तैसा उही रहौ हरखि गुन गाइ ॥८० ॥
देखि देखि जग ढूं ढिया कहूं न पाया ठौर ।
जिन हरि का नाम न चेतियो कहा भुलाने और ॥ ८१ ॥
कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ।
धरती भार न ब्यापई उनको लाहू ताहि ॥ ८२॥
कबीर नयनी काठ की क्या दिखलावहि लोइ ।
हिरदै राम न चेतही इह नयनी क्या होइ ।। ८३ ॥
जा घर साध न सेवियहि हरि की सेवा नाहि ।
ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि ॥ ८४ ॥
ना मोहि छानि न छापरी ना मोहि घर नहीं गाउ ।
मति हरि पूछे कौन है मेरे जाति न नाउ ।। ८५ ॥
निर्मल बूंद आकाश की लीनी भूमि मिलाइ।
अनिक सियाने पच गये ना निरवारी जाइ ।। ८६ ॥
नृप-नारी क्यों निंदियै क्यों हेरि चेरी कौ मान ।
ओह माँगु सवारै विषै की आहु सिमरै हरिनाम ॥ ८ ॥
नैन निहारौ तुझको स्रवन सुनहु तुव नाउ ।
बैन उचारहु तुव नाम जी चरन कमल रिद ठाउ ॥८॥