पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४३

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परिशिष्ट

कबीर राम न ध्याइयो मोटी लागी खोरि ।
काया हाड़ो काठ की ना ओह चढै बहोरि ॥१२८।।
राम कहन महि भेदु है तामहि एकु बिचारु ।
सोई राम सबै कहहिं सोई कौतकहारु ।।१२६॥
कबीर राम मै राम कहु कहिबे माहि बिबेक ।
एक अनेकै मिलि गया एक समाना एक ॥१३०।।
रामरतन मुख कोथरी पारख आगै खोलि ।
कोइ आइ मिलैगा गाहकी लेगा महँगे मोलि ॥ १३१ ॥
लागी प्रीति सुजान स्यो बरजै लोगु अजानु ।
तास्यो टूटी क्यों बन जाके जीय परानु ॥१३२।।
बांसु बढ़ाई बूड़िया यों मत डूबहु कोइ।
चंदन कै निकटे बसे बासु सुगंध न होइ ।।१३३।।
कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस ।
मनोरथ कोइ न पूरियो चाले ऊठि निरास ॥१३४॥
बिरहु भुअंगमु मन बसै मत्तु न मानै कोइ ।
राम बियोगी ना जियै जियै त बौरा होइ ।।१३५॥
बैदु कहै हैं। ही भला दारू मेरै बस्सि ।
इह तौ वस्तु गोपाल की जब भावै ले खस्सि ॥१३६॥
वैष्णव की कूकरि भली साकत की बुरी माइ।
ओह सुनहि हर नाम जस उह पाप विसाहन जाइ ॥१३७।।
वैष्णव हुआ त क्या भया माला मेली चारि ।
बाहर कंचनवा रहा भीतरि भरी भँगारि ॥१३८।।
कबीर संसा दूरि करु कागह हेरु बिहाउ ।
बावन अक्खर सोधि कै हरि चरनो चितु लाउ ॥१३८॥ .
संगति करियै साध की अंति करै निर्बाहु ।
साकत संगु न कीजिये जाते होइ बिनाहु ॥१४०॥