पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३४५

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परिशिष्ट

साधू की संगति रहौ जौ की भूसी खाउ ।
होनहार सो होइहै साकत संगि न जाउ ॥ १५४ ॥
साधु को मिलने जाइये साथ न लीजै कोइ।
पाछे पाउँ न दीजियै आगै होइ सो होइ ॥ १५५।।
साधू संग परापति लिखिया होइ लिलाट ।
मुक्ति पदारथ पाइयै ठाकन अवघट घाट ॥ १५६ ॥
सारी सिरजनहार की जाने नाहों कोइ ।
कै जानै आपन धनी कै दासु दिवानी होइ ॥ १५७ ॥
सिखि साखा बहुते किये केसो कियो न मीतु ।
चले थे हरि मिलन कौ बीचै अटको चीतु ।। १५८ ।।
सुपने हू बरड़ाइकै जिह मुख निकसै राम।
ताके पा की पनही मेरे तन को चाम ।। १५६ ॥
सुरग नरक ते मैं रह्यो सति गुरु के परसादि ।
चरन कमल की मौज महि रहौ अंति अरु आदि । १६० ॥
कबीर सूख न एह जुग करहि जु बहुतै मीत ।
जो चित राखहि एक स्यों ते सुख पावहि नीत ।। १६१ ॥
कबीर सूरज चाँद के उदय भई सब देह ।
गुरु गोबिंद के बिन मिले पलटि भई सब खेह ॥ १६२ ॥
कबीर सोई कुल भली जा कुल हरि को दासु।
जिह कुल दासु न ऊपजै सो कुल ढाकु पलासु ।। १६३ ॥
कबीर सोई मारिये जिहि मूये सुख होइ।
भलो भलो सब कोइ कहै बुरो न माने कोइ ॥ १६४ ॥
कबीर सोइ मुख धन्नि है जा मुख कहियै राम ।
देही किसकी बापुरी पवित्र होइगो आम ॥ १६५ ॥
हंस उड़यो तनु गाड़ियो सोझाई सैनाह ।
अजहू जीउ न छाड़ई रंकाई नैनाह ॥ १६६ ॥