सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(२३)


होना उनके शरीर में प्रवाहित होनेवाले ब्राह्मण, अथवा कम से कम हिंदु रक्त की ही ओर संकेत करता है। स्वयं कबीरदास ने अपने माता पिता का कहीं कोई उल्लंख नहीं किया है, और जहाँ कहीं उन्होंने अपने संबंध में कुछ कहा भी है वहाँ अपने को जुलाहा और वनारस का रहनेवाला बताया है। जाति जुलाहा मति को धीर । हरषि हरपि गुण रमै कबीर ।। मेरे राम की अभैपद नगरी, कहै कबीर जुलाहा । नू ब्राह्मन मैं कासी का जुलाहा । परंतु जान पड़ता है कि उनकी हार्दिक इच्छा यही थी कि यदि मेरा ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ होता तो अच्छा होता। पूर्व जन्म में अपने ब्राह्मण होने की कल्पना कर वे अपना परितोष कर लेते हैं। एक पद में वे कहते हैं- पूरब जनम हम बालन होने वोछे करम तप हीना । रामदेव की सेवा चूका पकरि जुलाहा कीना ॥ ग्रंथ-साहब में कबीरदास का एक पद दिया है जिसमें कबीर- दास कहते हैं-"पहले दर्सन मगहर पायो पुनि कासी बसे आई।" एक दूसरे पद में कबीरदास कहते हैं--"तोरे भरोसे मगहर बसियो मेरे तन की तपन बुझाई"। यह तो प्रसिद्ध ही है कि कबीरदास अंत में मगहर में जाकर बसे और वहीं उनका परलोकवास हुमा। पर "पहलं दर्सन मगहर पायो पुनि कासी बसे आई" से तो यह ध्वनि निकलती है कि उनका जन्म ही मगहर में हुआ था और फिर ये काशो में आकर बस गए और अंत में फिर मगहर में जाकर पर- लोक सिधारे। तो क्या विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म पाने और • नीरू तथा नीमा से पालिख पोषित होने की समस्त कथा केवल मन- गदत है और उसमें कुछ भी सार नहीं ? यह विषय विशेष रूप से विचारणीय है।