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कबीर-ग्रंथावली

अब मोकौ भये राजा राम सहाई।
जनम मरन कटि परम गति पाई॥
साधू संगति दियो रलाइ ।
पंच दूत ते लियो छड़ाइ ।
अमृत नाम जपो जप रसना !
अमोल दास करि लीना अपना ।
सति गुरु कीनो पर उपकारु ।
काढि लीन सागर संसारु॥
चरन कमल स्यां लागी प्रीति ।
गोबिंद बसै निता नित चीति ।।
माया तपति बुझ्या अंग्यारु ।
मन संतोप नाम प्राधारुः ।।
जल थल पूरि रहे प्रभु स्वामी ।
जत पेखा तत अंतर्यामी ।।
अपनी भगति आपही दृढ़ाई ।
पूरब लिखतु गिल्या मेरे भाई ।।
जिसु कृपा करै तिसु पूरन साज ।
कबीर को स्वामी गरीब निवाज ॥६॥

अब मोहि जलत राम जल पाइया । राम उदक तन जलत बुझाइया
मन मारन कारन बन जाइयै । सो जल विन भगवंत न पाइयै ।।
जेहि पावक सुर नर है जारे । राम उदक जन जलत उबारे ॥
भवसागर सुखसागर माहीं । पीव रहे जल निखुटत नाहीं ॥
कहि कबीर भजु सारिंगपानी । राम उदक मेरी तिषा बुझानी ।।७।।
अमल सिरानो लेखा देना । आये कठिन दूत जम लेना ॥
क्या तै खटिया कहा गवाया । चलहु सिताब दिवान बुलाया ॥
चलु दरहाल दिवान बुलाया । हरि फुर्मान दरगह का आया ॥