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कबीर-ग्रंथावली

कुपटा एकु पंच पनिहारी । टूटी लाजु भरै मतिहारी ॥
कहु कबीर इकु बुद्धि बिचारी । ना ऊ कुपटा ना पनिहारी ॥ ११॥अव्वल अल्लह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे।
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मंदे ॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई।
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पुर रह्यो सब ठाई ।।
माटी एक अनेक भाँति करि साजी साजनहारे।
ना कछु पोच माटी के भाँणे न कछु पोच कुंभारै ॥
सब महि सच्चा एको सोई तिसका किया सब किछु होई। .
हुकम पछानै सु एको जानै बंदा कहियै सोई ।।
अल्लह अलख न जाई लखिया गुरु गुड़ दीना मीठा।
कहि कबीर मेरी संका नासी सर्व निरंजन डीठा ।। १२ ।।
अस्थावर जंगम कीट पतंगा । अनेक जनम कीये बहुरंगा ।।
ऐसे घर हम बहुत बसाये । जब हम राम गर्भ होइ अाये ॥
जोगी जती तपी ब्रह्मचारी । कबहु राजा छत्रपति कबहु भेखारी ।।
साकत मरहि संत सब जीवहि । राम रसायन रसना पीवहि ।।
कहु कवीर प्रभु किरपा कीजै । हारि पर अब पूरा दीजै ॥ १३ ॥
अहि निसि एक नाम जो जागै। कंतक सिद्ध भय लव लागै ।।
साधक सिद्ध सकल मुनि हारे । एक नाम कलपतरू तारे ।
जो हरि हरे सु होहि न पाना ।कहि कबोर राम नाम पछाना॥१४।।
आकास गगन पाताल गगन है चहु दिसि गगन रहाइले ।
आनँद मूल सदा पुरुषोत्तम घट विनसै गगन न जाइलै ।।
मोहिं बैराग भयो । इह जीउ आइ कहाँ गयो ।
पंच तत्व मिलि काया कीनी तत्व कहा ते कीन रे ।
कर्मबद्ध तुम जीउ कहत है। कर्महि किन जीउ दीन रे ॥