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कबीर-ग्रंथावली

'बृदाबन मन हरन मनोहर कृष्ण चरावत गाऊ रे ।
जाका ठाकुर तुही सारिंगधर मोहि कबीरा नाऊ रे ॥ १८ ॥
इंद्रलोक सिव लोकै जैबो । ओछ तप कर बाहरि ऐबो ॥
क्या मांगों किछु थिरु नाहीं । राम नाम राखु मन माहीं ।।
सोभा राज बिभव बड़ि पाई। अंत न काहू संग सहाई ।।
पुत्र कलत्र लछमी माया । इनते कहु कौने सुख पाया ।।
कहत कबीर अवर नहिं कामा । हमरे मन धन राम को नामा।।१६!
इक तु पतरि भरि उरकट कुरकट इफ तु पतरि भरि पानी ।
आस पास पंच जोगिया बैठे बीच नकट देरानी ॥
नकटी को ठनगन बाडाडू किनहि बिबेकी काटी तू॥
सकल माहि नकटी का बासा सकल मारिऔ हेरी। .
सकलिया की है। बहिन भानजी जिनहि बरी तिमु चेरी ।
हमरो भर्ता बड़ो बिबेकी प्रापे संत कहावै ।
ओहु हमारे माथै काइम और हमरै निकट न आवै ।।
नाकहु काटी कानहु काटी काटिकूटि के डारी ।
कहु कबीर संतन की बैरनि तीनि लोक की प्यारी ॥ २० ॥
इन माया जगदीस गुसाई तुमरे चरन बिसारे ।
किंचत प्रीति न उपजै जन को जन कहा कर बेचारे !।
धृग तन धृग धन धृग इह माया धृग धृग मति बुधि फन्ना ।
इस माया को दृढ़ करि राख हु बाँधे आप बचनी ।।
क्या खेती क्या लेवा देवी परपंच झूठ गुमाना।
कहि कबीर ते अंत बिगूते आया काल निदाना ॥ २१ ।।
इसु तन मन मध्ये मदन चार । जिन ज्ञानरतन हरि लीन मोर ।।
मैं अनाथ प्रभु की काहि । की कौन बिगूतो मैं को आहि ।।
माधव दारुन दुःख सह्यो न जाइ। मेरो चपल बुद्धि स्यों कहा बसाइ।
सनक सनंदन सिव सुकादि । नाभि कमल जाने ब्रह्मादि ।