कविजन जोगो जटाधारि । सब आपन औसर चले सारि ॥
तू अथाह मोहि थाह नाहि । प्रभु दीनानाथ दुख कहीं काहि ॥
मेरो जनम मरन दुख आथि धीर सुखसागर गुन रव कबीर ॥२२॥
इहु धन मेरे हरि को नाउ । गाँठि न बाँधौ बंचि न खाँउ ।।
नाँउ मेरे खेती नांउ मेरी बारी । भगति करौं जन सरन तुमारी ।।
नाँउ मेरे माया नाँउ मा पूँजी । तुमहि छाडि जानौ नहि दूजी।
नाँउ मेरे बंधिय नांउ मेरे भाई। नाउ मेरे संगी अंति होइ सखाई ।।
माया महि जिसु रखै उदास । काहे कबीर ही ताको दास ॥२३॥
उदक म मुंद सलल की साख्या नदी तरंग समावहिंगे।
सुन्नहि सुन्न मिल्या समदर्सी पवन रूप होइ जावहिंगे ।।
बहुरि हम काहि आवहिंग .
प्रावन जाना हुक्म तिसै का हुक्मै बुझि समावहिंगे। .
जब चूकै पंच धातु की रचना एसे भर्म चुकाव हिंन ।
दर्सन छोड़ भए समदी एका नाम धियावहिंगे ।
जित हम लाए तितही लागे तैसे करम कमावहिंगे।
हरि जी कृपा करै जो अपनी तो गुरु के सबद कमावहिंगे !!
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जन्म न होई ।
कहु कबीर जो नाम समाने सुन्न रह्या लव सोई ।। २४ ॥
उपजै निपजै निपजिस भाई । नयनहु देखत इहु जग जाई ।
लाज न मरहु कदा घर मेरा । अंत की बार नहीं कछु तेरा ॥
अनेक यतन कर काया पाली । मरती बार अगनि संग जाली ॥
चोवा चंदन मर्दन अंगा । सो तनु जलै काठ के संगा।
कहु कबीर सुनहु रे गुनिया । बिनसँगो रूप देखै सब दुनिया ॥२५॥
। उलटत पवन चक्र पट भेदे सुरति सुन्न अनुरागी ।
भावै न जाइ मरे न जीवै तासु खोज बैरागी ।
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