पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३५६

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कबीर-ग्रथावली


“ मेरो मन मनही उलटि समाना ।
गुरु परसादि अकल भई अवरै ना तरु था वेगाना ।
निवरै दूरि दूरि फुनि निवरै जिन जैसा करि मान्या ।
अलउती का जैसे भया बरेडा जिन पिया तिन जान्या ।।
तेरी निर्गुण कथा काहि स्यों कहिये ऐसा कोइ विवेकी ।
कहु कबीर जिन दिया पलीता तिनतै सीझल देखी ।। २६ ॥
उलटि जात कुल दोऊ बिसारी । सुन्न सहज महि बुनत हमारी ।।
हमरा झगरा रहा न कोऊ । पंडित मुल्ला छाडै दोऊ ।। .
बुनि बुनि आप आप पहिरावै । जहँ नहीं आप तहाँ है गावौं ।
पंडित मुल्ला जो लिखि दीया । छाड़ि चले हम कछू न लीया ।
रिदै खलासु निरखि ले मीरा । आपु खोजि खोजि मिलै कबीरा॥२७।।
जस्तुति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ।
लोहा कंचन सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ।।
तेरा जन एक आध कोई।
काम क्रोध लोभ मोह बिबरजित हरिपद चीन्है सोई ॥
रजगुण तमगुण सतगुण कहिये इह तेरी सब माया। .
चौथे पद को जो नर चीन्है तिनहि परम पद पाया ॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ।
त्रिस्ना अरू माया भ्रम चूका चितवत प्रातमरामा ।।
जिह मंदिर दीपक परिगास्या अंधकार तह नासा ।
निरभी पूरि रहे भ्रम भागा कहि कबीर जनदासा ॥ २८ ॥
ऋद्धि सिद्धि जाको फुरी तब काहू स्यों क्या काज ।
तेरे कहिने की गति क्या कहैं। मैं बोलत ही बड़ लाज ।।
राम जिह पाया राम । ते भवहि न बार बार ।।
झूठा जग डहकै घना दिन दुइ वर्तन की प्रास ।
राम उदक जिह जन पिया तिह बहुरि न भई पियास ।।