पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३६५

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परिशिष्ट

चन्दन कै संगि तरवर बिगरयो । सो तरवर चन्दन है निबरयौ ।।
पारस के सँग ताँबा बिगरयो । सो ताँबा कंचन है निबरयो ।।
संतन संग कबीरा बिगग्यो । सो कबीर राम है निबरसो ॥ ५६ ।।

गगन नगरि इक बूंद न वर्षैं नाद कहा जु समाना ।
पारब्रह्म परमेसरु माधव परम हंस ले सिधाना ।
बाबा बोलते ते कहा गये । देही के संगि रहते।
सुरति माहि जो निरते करते कथा वार्ता कहते ।।
बजावन-हारो कहाँ गयो जिन इह मंदर कीना।
साखी सबद सुरति नहीं उपजै खिंच तेज सब लीना ।
सवनन बिकल भये संगि तेरे इंद्रो का बल थाका ।
चरन रहे कर ढरक परे हैं मुखहु न निकसै बाता ।।
थाके पंचदूत सब तस्कर आप आपणे भ्रमते ।
थाका मन कुंजर उर थाका तेज सूत धरि रमते !।
मिरतक भये दसै बंद छूटे मित्र भाई सब छोरे ।
कहत कबीरा जो हरि ध्यावै जीवत बंधन तारे ।। ५७।।

गगन रसाल चुए मंरी भाठी । संचि महारस तन भया काठी ।।
वाकौ कहियै सहज मतवारा। पीवत राम रस ज्ञान बिचारा।।
सहज कलालनि जौ मिलि आई : आनंदि माते अनदिन जाई ।।
चीन्हत चीत निरंजन लाया। कहु कबीर तौ अनुभव पाया ॥ ५८॥

गज नव गज दस गज इकीस पुरी आये कत नाई।
साठ सुत नव खंड बहत्तर पाटु लगो अधिकाई ॥
गई बुनावन माहो । घर छोड़यो जाइ जुलाहो ॥
गजी न मिनियै तोलि न तुलियै पाँच न सेर अढ़ाई।
जौ करि पाचन बेगि न पावै झगरू करै घर भाई ।।
दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई।
छूटे कुंडे भीगै पुरिया चल्यो जुलाहो रिसाई ।
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