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कबीर-ग्रंथावली

छोछी नली तंतु नहीं निकसै नतरु रही उरझाही ।
छोड़ि पसारई हारहु बपुरी कहु कबीर समुझाही ।।५६।।

गज साढे तैं ते धोतिया तिहरे पाइनि तग्गा।
गली जिना जपमालिया लोटे हथिनि बग्गा ।।
ओइ हरि के संतन आखि यहि बानारसि के ठग्गा ॥
ऐसे संत न मोकौ भावहि ।डाला स्यों पेड़ा गटकावहि ।।
बासन माजि चरावहि ऊपर काठी धोइ जलावहि ।
बसुधा खोदि करहि दुइ चूल्हे सारे माणस खावहि ॥
ओई पापी सदा फिरहि अपराधी मुखहु अपरस कहावहि।
सदा सदा फिरहि अभिमानी सकल कुटंब डुबावहि ।।
जित को लाया तितही लागा तैसे करम कमावै ।
कहु कबीर जिसु सति गुरु भेटै पुनरपि जनमि न आवै ॥६॥

गर्भ पास महि कुल नहिं जाती । ब्रह्म बिंद ते सब उतपाती ।।
कहुरेपंडित बामन कब के होय।बामन कहि कहि जनम मति खोये।।
जौ तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया । तौ आन बाट काहे नहीं आया ।।
तुम कत ब्राह्मण हम कत शूद । हम कत लोहू तुम कत दूध ।।
कहु कबीर जो ब्रह्म बिचारै । सो ब्राह्मण कहियत है हमारे ॥६१॥

गुड़ करि ज्ञान ध्यान करि महुवा भाठी मन धारा ।
सुषमन नारी सहज समानी पीवै पीवन हारा ।।
अवधू मेरा मन मतवारा।
उन्मद चढ़ा रस चाख्या त्रिभवन भया उजियारा ।।
दुइ पुर जारि रसाई भाठी पीउ महा रस भारी ।
काम क्रोध दुइ किये जले ता छूटि गई संसारी ।।
प्रगट प्रगास ज्ञान गुरु गम्मित सति गुरु ते सुधि पाई।
दास कबीर तासु मदमाता उचकि न कबहू जाई ॥६२।।