पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३६७

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परिशिष्ट

गुरु चरण लागि हम बिनवत पूछत कह जीव पाया।
कौन काज जग उपजै बिनसै कहहु मोहि समझाया ।
देव करहु दया मोहि माग लावहु जितु भव बंधन टूटै ।
जनम मरण दुख फेड़ कर्म सुख जीय जनम ते छूटै ।।
माया फांस बंधन ही कारै अरु मन सुन्नि न लूके ।
आपा पद निर्वाण न चीन्ह्या इन विधि अभिउ न चूके ।
कंही न उपजै उपजी जाणै भाव प्रभाव विहूणा ।
उदय अस्त की मन बुधि नासी तौ सदा सहजि लव लीणा ।।
ज्यों प्रतिबिंब बिंब कौ मिलि है उदक कुंभ बिगराना।
कहु कबीर ऐसा गुण भ्रम भागा तौ मन सुन्न समाना ॥६३॥

गुरु सेवा ते भगति कमाई.। तब इह मानस देही पाई ॥
इस देही कौ सिमरहि देव । सो देही भुज हरि की सेव ॥
भजहु गुविंद भूलि मत जाहु । मानस जनम का रही चाहु ।।
जब लग जरा रोग नहिं आया ।जब लग कास्त ग्रसी नहि काया।।
जब लग बिकल भई नहीं बानी । भजि लेहि रे मन सारंगपानी ।।
अब न भजसि भजसि कब भाई । आवै अंत न भजिया जाई ।।
जो किछु करहि सोई अबि सारू । फिर पछताहु न पावहु पारू ।
सो सेवक जो लाया सेव । तिनही पाये निरंजन देव ॥
गुरु मिलि ताके खुले कपाट । बहुरि न आवै योनी बाट ।।
इही तेरा अवसर इह तेरी बार । घट भीतर तू देखु बिचारि ।।
कहत कबीर जीति के हारि ।बहु बिधि कह्यो पुकारि पुकारि ॥६४॥

गृह तजि बन खंड जाइयै चुनि खाइयै कंदा ।
अजहु बिकार न छोड़ई पापी मन मंदा ॥
क्यों छुटौं कैसे तरौं भव निधि जल भारी।
राखु राखु मेरे बीठुला जन सरनि तुमारी ।।