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कबीर-ग्रंथावली

माजार गाउर अरु लुबरा । बिरख मूल माया महि परा॥
मया अन्तर भीने देव । सागर इन्द्रा अरु धरतेव ।।
कहि कबीर जिसु उदर तिसु माया। तंब छूटै जब साधू पाया।७८।।

जल है सूतक थल है सूतक सूतक ओपति होई ।
जनमे सूतक मुए फुनि सूतक सूतक परज बिगोई ।।
कहुरे पंडिया कौन पवीता ।ऐसा ज्ञान जपहु मेरे मीता।।
नैनहु सूतक बैनहु सूतक सूतक स्रवनी होई ।
ऊठत बैठत सूतक लागै सूतक परै रसोई ।।
फंसन की विधि सब कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ।
कहि कबीर रांम रिदै बिचारै सूतक तिनै न होई ।।७६।।

जहँ किछु अहा तहाँ किछु नाही पंच तत्त्व तह नाहीं ।
इडा पिंगला सुषमन बंदे ये अवगुन कत जाहीं ।।
तागा तूटा गगन विनसि गया तेरः बेलत कहा समाई ।
एह संसा मोको अनदिन व्यापै मोकौ कौन कहै समझाई।।
जह ब्रह्मंड पिंड तह नाही रचनहार तह नाही ।
जोड़नहारो सदा अतीता इह कहियै किसु माही ॥
जोड़ी जुड़ै न तोड़ी तूटै जब लग होइ विनासी ।
काको ठाकुर काको सेवक को काहू के जासी ।
कहु कबीर लिव लागि रही है जहाँ बसै दिन राती।
वाका मर्म वोही पर जानै ओहु तो सदा अविनासी॥८०।।

जाके निगम दूध के ठाटा । समुंद बिलोवन को माटा ।
ताकी होहु विलोवनहारी । क्यों मंटैगी छाछि तुम्हारी ।।
चेरी तू रांम न करसि भतारा ।जग जीवन प्रान अधारा।
तेरे गलहि तौक पग बेरी । तू घर घर रमिए फेरी ।।
तू अजहु न चेतसि चेरी । तू जेम बपुरी है हेरी ॥
प्रभु करन करावन हारी । क्या चेरी हाथ विचारी ।।