पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९६
परिशिष्ट

सोई साई जागी ।जितु लाई तितु लागी ।।
चेरी तै सुमति कहाँ ते पाई। जाके भ्रम की लीक मिटाई।।
सुरसु कबीरै मान्या । मैरो गुरु प्रसाद मन मान्या ।।८१।।

जाकै हरि मा ठाकुर भाई । मुकति अनन्त पुकारन जाई ।।
अब कहु रांम भरोसा तोरा । तब काहू का कौन निहोरा ।।
तीनि लोक जाके हहि भार । सो काहे न करै प्रतिपार ।।
कहु कबीर इक बुद्धि बिचारी । क्या बस जौ विष महतारी ।।८२।।

जिन गढ़ कोटि किए कंचन के छोड़ गया सो रावन ।
काहे कीजत है मन भावन ।।
जय जम आइ केस ते पकरै तह हरि को नाम छड़ावन।।
काल अकाल खसम का कीना इह परपंच वधावन !
कहि कबीर ते अंसे मुक्ते जिन हिरदै राम रसायन।।८३।।

जिह मुख बंद गायत्री निकसै सो क्यों ब्रह्मन बिसरू करै।
जाके पाय जगत सव लागै सो क्यों पंडित हरि न कहै ।।
काहे.मेरे ब्राह्मन हार न कहहि।रामु न बोल हि पडि दोजक भरहि।।
आपन ऊच नीच घरि भोजन हठे करम करि उदर भरहि ।
चैदिस अमावस रचि रचि मांगहि कर दैपक लै कूप परहि ।।
तुं ब्रह्मन मैं कासी का जुलहा मोहि तोहि बराबरि कैसे कै वनहि ।
हमरे राम नाम कहि उबरे बंद भरोसे पांडे डूब मरहि ॥ ८४ ।।

जिह कुल पूत न ज्ञान विचारी । बिधवा कस न भई महतारी ।
जिह नर राम भगति नहीं साधी । जनमत कस न मुयो अपराधी।
मुचमुच गर्भ गये कीन बचिया बुड़ भुज रूपजीवे जग मझिया।
कहु कबीर जैसे सुंदर स्वरूप।नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥८५॥

जिह मरनै सब जगत तरास्या । सो मरना गुरु सबद प्रगास्या।।
अब कैसे मरौं मरन मन मान्या।मर मर जाते जिन राम न जान्या॥