पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३७५

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परिशिष्ट

जीवत पितर न माने काऊ मुएं सराद्ध कराही ।
पितर भी बपुर कहु क्यों पावहि कौश्रा कूकर खाही ।।
मोंकौ कुसल बतावहु कोई।
कुसल कुसल करते जग बिनसै कुसल भी कैसे होई ।।
माटी के करि देवी देवा तिसु आगे जीउ देही ।
ऐसे पितर तुम्हारे कहियहि आपन कह्या न लेही ।।
संरजीव काटहि निर्जीव पूजहि अंत काल कौ भारी ।
रांम नाम की गति नहीं जानी भय डूब संसारी ।।
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रह्म नहीं जाना ।
कहत कबीर अकुल नहीं चेत्या बिपया स्यों लपटाना ॥६०॥

जीवत मरै मरै फुनि जीवै ऐसे सुन्नि समाया।
अंजन माहिं निरंजनं रहियै बहुरि न भव जल पाया ।।
मेरे राम ऐसा खीर बिलोइयै ।
गुरु मति मनुवा अस्थिर राखहु इन विधि अमृत पिओइयै ।।
गुरु कै बाणि वजर कलछेदी प्रगट्या पद परगासा।
शक्ति अधेर जेवड़ी भ्रम चूका निहचल सिव घर बासा ॥
तिन बिनु बाणै धनुष चढ़ाइयै इहु जग बेध्या भाई ।
दह दिसि बूड़ी पवन झुलावै डोरि रही लिव लाई ।।
उनमन मनुवा सुन्नि समाना दुबिधा दुर्मति भागी।
कहु कबीर अनुभौ इकु देख्या राम नाम लिव लागी ।। ६१ ॥

जो जन भाव भगति कछु जानै ताको अचरज काहो। .
बिनु जल जल महि पैसि न निकसै तो ढरि मिल्या जुलाहो ॥
हरि के लोग मैं तौ मति का भोरा ।
जौ तन कासी तजहि कबीरा रामहि कहा निहोरा ॥ . .
कहतु कबीर सुनहु रे लोई भरम न भूलहु कोई।
क्या कासी क्या उसरु मगहर राम रिदय जौ होई ॥ ६२ ॥