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कबीर-ग्रंथावली

जेते जतन करत ते डूबे भव सागर नहीं तारसौ रे ।
कर्म धर्म करते बहु संजम अहं बुद्धि मन जारयौ रे ।।
साँस ग्रास को दातो ठाकुर सो क्यों मनहु बिसारसो रे ।
हीरा लाल अमोल जनम है कौड़ी बदलै हारसो रे ॥
तृष्णा तृषा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहिं विचारसो रे ।
उनमत मान हिसो मन माही गुरु का सबद न धारयोरे।।
स्वाद लुभत इंद्रा रस प्रेरयो मद रस लैत विकारयो रे।
कर्म भाग संतन संगाने काष्ठ लोह उद्धारयो रे ।।
धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारगी रे ।
कहि कबीर गुरु मिलत महा रस प्रेम भगति निस्तारयो रे।।६३।।

जेह बाझ न जीया जाई। जौ मिलै ता घाल अघाई ।।
सद जीवन भलो कहाही। मुए बिन जीवन नाही ।।
अब क्या कथिय ज्ञान बिचारा । निज निर्खत गत व्योहारा ।।
घसि कुंकम चंदन गाया । बिन नयनहु जगत निहारया ।।
पूत पिना इक जाया । बिन ठाहर नगर बनाया ।।
जाचक जन दाता पाया । सो दिया न जाई खाया ।।
छोडया जाइ न मूका । औरन पहि जाना चूका ।।
जो जीवन मरना जानै । सो पंच सैल मुख मानै ।।
कबीर सो धन पाया। हरि भेटत श्राप मिटाया ॥ ६४ ॥

जैसे मन्दर महि वल हरना ठाहरै । नाम विना कैसे पार उतरै ।।
कुंभ बिना जल ना टिकावै । साधू बिन ऐसे अवगत जावै ॥
जारी तिस जु राम न चेतै । तन मन रमत रहै महि खेनै ।।
जैसे हलहर बिना जिमी नहि बाइये ।सूत बिना कैसे मणी परोइयै।।
धुंडी बिन क्या गंठि चढ़ाइयै । माधू बिन तैसे अवगत जाइये ॥
जैसे मात पिता बिन वाल न होई । चिंब बिना कैसे कपरे धोई ।।
घोर बिना कैसे असवार । साधू बिन नाही दरबार ॥