पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६६
कबीर-ग्रंथावली

सुर नर मुनि जन कौतक आये कोटि तैतीसो जाना।
कहि कबीर मोहि ब्याहि चले हैं पुरुष एक भगवाना ॥१०७।।

तरवर एक अनन्त डार शाखा पुहुप पन रस भरिया ।
इह अमृत की बाड़ी है रे तिन हरि पूरै करिया !!
जानी जानी रे राजा राम की कहानी।
अन्तर ज्योति राम परगासा गुरु मुख बिरलै जानी ।।
भवर एक पुहुप रस बीधा वार हले उर धरिया !
सोरह मध्ये पवन झकोसो आकासे फर फरिया ।।
सहज सुन्न इक बिरवा उपज्या धरती जलहर सोख्या ।
कहि कबीर हौ ताका सेवक जिनका इहु त्रिरवा देख्या ॥१०८।।

तूटे तागं निखुदी पानि । द्वार ऊपर झिल्लिकावहि कान ।। .
कूच बिचार फूए फाल । या मुंडिया सिर चढ़िबा काल ।।
इहु मुंडिया सगलो द्रव खाई । आवत जात ना कसर होई ।।
तुरी नारि की छोड़ी बाता । राम नाम वाका मन राता ।।
लरिकी लरिकन खैबो नाहि । मुंडिया अनदिन धाये जाहि ।।
इक दुइ मन्दर इक दोइ बाट । हमको साथरु उनको खाट, ।।
मूंड पलोसि कमर बधि पोथी । हमको चाबन उनको रोटी ।।
मुंडिया मुंडिया हुए एक । ए मुंडिया बूडत की टेक ।।
सुनि अंधली लोई वेपीर। इन मुंडियन भजि सरन कबीर१०६॥

तू मेरो मेरु परबत सुवामी श्रेष्ट गही मैं तेरी ।
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ।।
अब तब जब कब तूही तूही । हम तुम परसाद सुखी सदही ।।
तोरे भरोसे मगहर बसियो । मेरे तन की तपति बुझाई ।।
पहिले दर्सन मगहर पायो । फुनि कासी बसे आई ।।
जैसा मगहर तैसी कासी हम एक करि जानी ।
हम निर्धन ज्यो इह धन पाया मरते फूटि गुमानी ।।