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कबीर-ग्रंथावली

दिन ते पहर पहर ते घरियाँ आयु घटै तनु छीजै ।
काल अहेरी फिरहि बधिक ज्यों कहहु कौन बिधि कीजै ।।
सो दिन आवन लागा। .
माता पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है काका ॥ .
जब लगु जोति काया महि बरतै आपा पसू न बूझै।
लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ।।
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोड़हु मन के भरमा ।
केवल नाम जपहु रे प्रानी परहु एक की सरना ।। ११४ ॥
दीन बिसारयो रे दिवाने दीन बिसारयो रे ।
पेट भयो पसुआ ज्यों सोयो मनुष जनम है हारयो ।
साध संगति कबहूँ नहिं कीनी रचियो धंधै झूठ ।
स्वान सूकर वायस जिवै भटकत चाल्यो ऊठि ।।
आपस को दीरघ करि जाने औरन कौ लघु मान ।
मनसा वाचा करमना मैं देखे दोजक जान ।।
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ।
निंदा करते जनम सिराना कबहु न सिमरयो राम ॥ .
कहि कबीर चेतै नहिं मूरख मुगध गवार ।
राम नाम जानियो नहीं कैसे उतरसि पार ॥ ११५ ।।
दुइ दुइ लोचन पेखा । हौ हरि विन और न देखा ॥
नैन रहे रंग लाई। अब बेगल कहन न जाई ।।
हमरा भर्म गया भय भागा । जब राम नाम चितु लागा ।।
बाजीगर डंक बजाई । सब खलक तमासे आई ।।
बाजीगर स्वाँग सकेला । अपने रंग रवै अकेला ।।
कथनी कहि भर्म न जाई । सब कथि कथि रही लुकाई ॥
जाकौ गुरु मुखि आप बुझाई । ताके हिरदै रहया समाई ।
गुरु किंचित किरपा कीनी । सब तन मन देह हरि लीनी