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कबीर-ग्रंथावली

धन ओहि संत जिन ऐसी जानी । तिनकौ मिलिबो सारंगपानी ॥
आदि पुरुष ते होइ अनादि । जपियै नाम अन्न कै सादि ।
जपियै नाम जपियै अन्न । अंभै के संग नीका वन्न ।।
अन्ने बाहर जो नर होवहि । तोनि भवन महि अपनो खावहि ॥
छोड़हि अन्न करै पाखंड । ना सोहागनि ना ओहि रंड ।।
जग महि बकते दूधाधारी । गुप्तो खावहि वटिका सारी ।।
अन्नै बिना न होइ सुकाल । तजियै अन्न न मिलै गुपाल ।।
कहु कबीर हम ऐसे जान्या। धन्य अनादि ठाकुर मन मान्या॥१२१।।

नमन फिरत जो पाइयै जोग। वन का मिरग मुकति सब होग ।।
क्या नागे क्या बांध चाम। जब नहिं चीन्हसि आतम रांम ।।
मूंड मुँडाये जो सिधि पाई । मुक्ती भेड़ न गय्या काई ।।
बिंदु राख जो तरयै भाई । खुसरै क्यों न परम गति पाई ।।
कहु कबीर सुनहू नर भाई ।रांम नाम बिन किन गति पाई ॥१२२॥

नर मरै नर काम न आवै । पसू मरै दम काज सँवारै ।।
अपने कर्म की गति मैं क्या जानौ । मैं क्या जानो बाबा रे ।।
हाड़ जले जैसे लकड़ी का तूजा ।कंस जले जैसे घास का पूला ।।
कहत कबीर सबही नर जागै ।जम का डंड मूंड महि लागै १२३।।

नाँगे आवन नाँगे जाना । कोइ न रहिहै राजा राना ।।
राम राजा नव निधि मेरै । संपै हेतु कलतु धन तेरै ।।
आवत संग न जात सँगाती । कहा भयो दर बाँधे हाथी ।।
लंका गढ़ साने का भया । मूरख रावन क्या ले गया ।।
कहि कबीर कुछ गुन वीचारि !चलै जुपारी दुइ हथ झारि । १२४॥

नाइक एक बनजारे पाच । बरध पचीसक संग काच ।
नव बहियाँ दस गोनि भाहि । कसन बहत्तरि लागी ताहि ।।
मोहि ऐसे बनज स्या ही काजु । जिह घटै मूल नित बढ़ै ब्याजु ॥
सन्त सूत मिलि बनजु कीन । कर्म भावनी संग लीन ।।