पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३८५

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परिशिष्ट

सीनि जगाती करत रारि । चलो बनजारा हाथ झारि॥
पूंजी हिरानी बनजु दूटि। दह दिम टांडो गयो फूटि ॥
कहि कबीर मन सरसी कान । सहज समानो त भर्म भाजि॥१२५॥

ना इहु मानुष ना इहु देव । ना इहु जती कहावै सेव ।।
ना इहु जोगी ना अवधूता । ना इसु माइ न काहू पूता ।।
या मन्दर मह कौन बसाई । ता का अन्त न कोऊ पाई॥
ना इहु गिरही ना ओदासी । ना इहु राज न भीख मॅगासी ।।
ना इहु पिंड न रकतू राती । ना इहु ब्रह्मन ना इहु खाती ।
ना इहु तया कहावै सेख । ना इहु जीवै न मरता देख ।।
इसु मरते कौ जे कोऊ रोवै । जो रोवै सोई पति खोवै।।
गुरु प्रसादि मैं डगरो पाया । जीवन मरन क्षेऊ मिटवाया ।
कहु कबीर इहु राम की अंसु ।जस कागद पर मिटै न मंसु॥१२६॥

नः मैं जोग ध्यान चित लाया। विन वैराग न छूटसि माया ।।
कैसे जीवन होइ हमारा । जब न होइ रांम नाम अधारा ॥
कहु कबीर खोजौ अम मान । रांम समान न देखौ आन ||१२७।।

निंदौ निंदौ मोकौ लोग निंदौ । निंदौ निंदौ मोकौ लोग निंदौ ।।
निदा जन कौ खरी पियारी । निंदा बाप निंदा महतारी ।।
निंदा होय त बैकुंठ जाइयै । नाम पदारथ मनहि बसाइयै ।।
रिदै सुद्ध जौ निंदा होइ । हमरे कपरे निंदक धोइ ॥
निंदा करै सु हमरा मीत । निंदक मादि हमारा चीत ।।
निंदक सो जो निंदा होरै । हमरा जीवन निंदक लोरै ।।
निंदा हमरी प्रेम पियार । निंदा हमरा करै उधार ॥
जन कबीर कौ निंदा सार ।निंदक डूबा हम उतरे पार ।। १२८ ।।

नित उठि कोरी गागरिमा नै लीपत जनम गयो।
ताना बाना कळू न सूझै हरि हरि रस लपट्यो ।