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कबीर-ग्रंथावली

ऐसा नायक रांम हमारा ।सकल संसार कियो बंजारा ।।
काम क्रोध दुइ भये जगाती मन तरंग बटवारा ।
पंच तत्तु मिलि दान निवेरहि टांडा.उतसो पारा ।।
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अब ऐसी बनि आई।
घाटी चढ़त बैल इक थाका चलो गोनि छिटकाई ॥१३॥

पिंड मुए जिउ किह घर जाता । सबद अतीत अनाह राता॥
जिन राम जान्या तिन्हीं पछान्या । ज्यों गूंगे साकर मन मान्यो ।।
ऐसा ज्ञान कथै बनवारी । मन रे पवन दृढ़ सुपमन नाड़ी।
सो गुरु करहु जि बहुरि न करना।से पद बहु जि बहुरि न रवना।।
सो ध्यान धरहु जि बहुरि न धरना । ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना।
उलटो गंगा जमुन मिलावौ। बिनु जल संगम मन महि नावौ ।।।
लोचा सम सरिहहु व्योहारा । तत्तु बीचारि क्या अवर बिचारा ॥
अप तेज वायु पृथमी आकासा । ऐसी रहिन रहौ हरि पामा ।।
कहे कबीर निरंजन ध्यावौ।तित घर जाहु जि बहुरि न आवौ।१४०।।

पेवक दै दिन चारि है साहुरडे जाणा ।
अंधा लोक न जाणई मूरन्बु एयाणा ।।
कहु उडिया बांधै धन खड़ी।याहू घर आये मुकलाऊमाय।।
ओह जि दिसै खहड़ी कौ न लाजु बहारी ।
लाज घड़ी स्यो टुटि पड़ी उठि चलीं पनिहारी ।।
साहिब होइ दयाल कृपा करे अपना कारज सवारे ।
ता सोहागणि जानिए गुरु सबद बिचारै ॥
किरत की बांधी सब फिरै देखहु विचारी।
एसनो क्या आखियै क्या करै बिचारी ।।
भई निरासी उठि चली चित बँधी न धीरा ।
हरि की चरणी लागि रहु भजु सरण कबीरा ॥ १४१ ।।

प्रहलाद पठाये पठन साल ।संगि सखा बहु लिए बाल।।