पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३९३

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परिशिष्ट

मन मेरे भूले कपट न कीजै । अंत निबेरा तेरे जीय पहि लीजै ।।
छिन छिन तन छीजै जरा जनावै।तब तेरी ओक कोई पानियो न पावै।।
कहत कबीर कोई नहीं तेरा। हिग्दै रांम किन जपहि सबेरा ॥१४८।।
बाती सूखी तल निखूटा । मंदल न बाजै नट पै सूता ।।
बुझि गई अगनि न निकस्यां धूआ।रवि रह्या एक अवर नहीं दूअा।।
तूटी तंतु न बजै रबाब । भूलि बिगारयो अपना काज !!
कथनी बदनी कहन कहावन । समझ परी तो बिसरयो गावन ।।
कहत कबीर पंच जो चूरे । तिनते नाहिं परम पद दूरे ।। १४६ ।।
बाप दिलासा मेरो कीना । सेज सुखाली मुखि अमृत दोना ।।
तिसु बाप कौ क्यों मनहु बिसारी । आगे गया न बाजी हारी ।।
मुई मेरी माई हौ खरा सुखाला ।पहिरौ नहीं दगली लगै न पाला।।
बलि तिसु वापै जिन हौं जाया । पंचा ते मंरा संग चुकाया ।।
पंच भारि पावा तलि दीने । हरि सिमरन मेरा मन तन भीने ! .
पिता हमारो बड्ड गोसाई । तिसु पिता पहि हौं क्यो करि जाई ।।
सति गुरु मिले ता मारग दिखाया । जगत पिता मेरे मन भाया ।।
है। पूत तेरा तू बाप मेरा । एकै ठाहरि दुहा बसेरा ।।
कह कबीर जनि एको बूझिया।गुरु प्रसाद मैं सब कछु सूझिया१५०॥
बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कियो ।
तीस बरस कछु देव न पूजा फिर पछुताना बिरध भयो ।।
मेरी मेरी करते जनम गयो । साइर सोखि भुजं बलयो ।।
सृके सरवर पालि बँधावै लूणे खेत हथ वारि करै।
आयो चोर तुरंत ही ले गयो मेरी राखत मुगध फिरै ।।
चरन सीस कर कंपन लागे नैनी नीर असार वहै।
जिहिवा बचन सुद्ध नहीं निकसै तब रे धरम की आस करै ।।
हरि जी कृपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नाम लियो।
गुरु परसादी हरि धन पायो अंते चल दिया नालि चल्यो ।।