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कबीर-ग्रंथावली

कहत कबीर सुनहु रे संतह अन धन कछु ऐलै न गयो ।
आई तलब गोपाल राइ की माया मंदर छोड़ चल्यो ।। १५१ ।।

बावन अक्षर लोक त्रय सव कछु इनही माहि ।
जे अक्खर खिरि जाहिगे ओइ अक्खर इन महि नाहिं ।।
जहाँ बोल तह अक्खर आवा । जह अबोल तह मन न रहावा ।।
बोल अबोल मध्य है सोई । जस ओहु है तस लखै न कोई ।।
अलह लहौ तौ क्या कहौ कहौ तो को उपकार ।
बटक बीजि महि रवि रह्यो जाको तीनि लोकि विस्तार॥
अलह लहंता भेद छै कछु कछु पायो भेद ।
उलटि भेद मन वेधियो पायो अभंग अछंद ।।
तुरक तरी कत जानियै हिंदू बेद पुरान ।
मन समझावन कारनै कछु यक पढियै ज्ञान ।।
ओअंकार आदि मैं जाना । लिखि और मेटै ताहि न माना ।'
ओअंकार लखै जौ कोई । सोई लखि मेटणा न होई ।।
कुक्का किरणि कमल महि पावा ।ससि विगास सम्पट नहि आवा।।
अरु जे तहा कुसम रस पावा । अकह कहा ऋहि का समझावा ॥
खख्खा इहै खाडि मन आवा । खोडे छाड़ि न दह दिसि धावा ।।
खसमहि जाणि खिमा करि रहै । तौ होइ निस्वनौ अवै पद लहै ।।
गग्गा गुरु के वचन पछाना । दूजी बात न धरई काना ।।
रहै बिहंगम कतहि न जाई । अगह गहै गहि गगन रहाई ॥
घुध्या घट घट निमसै सोई। घट फूटे घट कबहिं न हाई॥
ता घट माहि घाट जौ पावा । सो बट छाँडि अयघट कत धावा ।
डंडा निग्रह सनेह करि निरवारी संदेह ।
नाही देखि न भाजियै परम सियानप एह ।।
चच्चा रचित चित्र है भारी । तजि चित्रै चेतहु चितकारी ।।
चित्र वचित्र इहै अवझेरा । तजि चित्रै चितु राखि चितेरा ॥