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कबीर-ग्रंथावली

मन रे संसार अंध गहेरा।
चहुँ दिसि पसरसो है जम जेवरा ।।
कबित पढ़े पढ़ि कविता मूये कपड़ के दारै जाई ।
जटा धारि धारि जोगी मूये तेरी गति इनहि न पाई ॥
द्रव्य संचि संचि राजे मूये गड़िले कंचन भारी।
बेद पढ़े पढ़ि पंडित मूये रूप देखि देखि नारी ।।
रांम नांम बिन सबै बिगूते देखहु निरखि सरीरा।
हरि के नांम बिन किन गति पाई कहि उपदेस कबीरा ॥१५४॥

भुजा बाँधि भिला करि डारयो । हस्ती कोपि मूड महि मारयो ।
हस्ती भागि कै चोसा मारै । या मुरति कै हौ बलिहारै ।।
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोर । काजी बकिबो हस्ती तोर ॥
रे महावत तुझ डारौ काटि । इसहि तुरावहु घालहु साटि ।।
हस्त न तोरै धरै ध्यान । वाकै रिदै बसै भगवान ।।
क्या अपराध संत है कीना । वाँधि पाट कुंजर को दीना ।।
कुंचर पोटलै ले नमस्कारै । बुझी नहीं काजो अंधियारै ।।
तीन बार पतिया भरि लीना । मन कठोर अजहू न पतीरा ॥
कहि कबीर हमारा गोबिंद । चौथे पद महि जन की जिंद ॥१५५।।

भूखे भगति न कीजै । यह माला अपनी लीजै ॥
है। माँगो संतन रेना। मैं नाही किसी का देना ।।
माधव कैसी वनै तुम संगे । आपि न देउ तले बहु संगे ।।
दुइ सेर माँगौ चूना । पाव घोउ संग लूना ॥
अधसेर माँगौ दाले । मोकौ दोनों बखत जिवाले।
खाट माँगौ चौपाई। सिरहाना और तुलाई ।।
ऊपर कौ माँगौ खोंधा । तेरी भगति करै जनु बींधा ।।
मैं नाही कीता लब्बो। इक नाउ तेरा मैं फव्बो ।।
कहि कबीर मन मान्या । मन मान्या तौ हरि जान्या ॥१५६॥