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कबीर-ग्रंथावली

तन सहि होती कोटि उपाधि । उलटि भई सुख सहजि समाधि ।
आप पछानै खपै आप । रोग न ब्यापै तीनों ताप ।।
अब मन उलटि सनातन हूआ । तब जान्या जब जीयत मूत्आ ।।
कहु कबीर सुख सहज समाओ ।आपि न डरान अवर डराओ।१७०।

जोगी कहहि जोग भल मीठा अवरु न दूजा भाई ।
रंडित मुंडित एकै सबदी एकहहि सिधि पाई ।।
हरि बिनु भरमि भुलाने अंधा।।
जा पहि जाउ आप छुटकावनि ते बाँधे बहु फंधा ।।
जह तं उपजी तही समानी इहि बिधि बिसरी तवहीं ।
पंडित गुणी सूर हम दाते एहि कहहि बड़ हमही ।।
जिसहि बुझाए साई बूझै बिनु बूझै क्यों रहियै ।
सति गुरु मिले अँधेरा चूके इन विधि प्राण कुलहिये ।।
तजिवा बेदा हने विकारा हरि पद दृढ़ करि रहियै ।
कहु कबीर गृंगै गुड़ खाया पूछे तं क्या कहियै ॥१७१।।

जोगी जती तपी संन्यासी बहु तीरथ भ्रमना ।
लुंजित मुंजित मौनि जटा धरि अंत तऊ मरना ।।
ताते सेविअ ले रामना।
रसना गम नाम हितु जाकै कहा करे जमना ।।
आगम निगम जोतिक जानहि बहु बहु ब्याकरना ।
तंत्र मंत्र सब औषध जानहि अंत तऊ मरना ॥
राज भोग अरु छत्र सिंहासन बहु सुंदरि रमना। ,
पान कपुर सुवासक चंदन अंत तऊ मरना ।।
वंद पुरान सिमृति सब खोजे कहूँ न ऊबरना ।
कंहु कबीर यो रामहिं जपी मेटि जनम मरना ॥ १७२ ॥

जोनि छाड़ि जौ जग महि आयो । लागत पवन खसम बिसरायो ।।