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कबीर-ग्रंथावली

पढ़ै गुनै नाही कछु बौरं जौ दिल महि खबरि न होई ।।
अल्लहु गैव सगल घट भीतर हिरदै लेहु विचारी।
हिंदू तुरक दुहू महि एक कहै कबीर पुकारी ॥ १८४ ॥

लंका सा कोट समुंद सी खाई। तिह रावन घर खबरि न पाई ।।
क्या माँगौ किछू थिरु न रहाई। देखत नयन चल्यो जग जाई ।।
इक लख पृत सवा लख नाती । तिह रावन घर दिया न बाती ।।
चंद सूरज जाके तपत रसोई । बैसंतर जाके कपरे धोई ।। ।
गुरु मति रामै नांम बसाई। अस्थिर रहै न कतह जाई ।।
कहत कबीर सुनहु रे लाई ।रांम नांम बिन मुकति न होई ।।‌१८५।।

लख चौरासी जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाका रे।
भगति हेतु अवतार लिया है भाग बड़ो बपुरा को रे॥
तुम जो कहत है। नंद को नंदन नंद सु नंदन काको रे।
धरनि अकास दसो दिसि नाही तब इतु नंद कहा थो रे ॥
संकट नहीं परै जोनि नहिं आवै नाम निरंजन जाको रे।
कबीर को स्वामी ऐसो ठाकुर जाकै माई न बापो रे ॥ १८६ ॥

विद्या न पढो बाद नहीं जानो । हरि गुन कथत सुनत बौरानो।
मेरे बाबा मैं बौरा, सब खलक सैयानो, मैं बारा।
मैं विगरयो बिगरै मति औरा । आपन वारा राम किया वारा ।।
सति गुरु जारि गयो भ्रम मारा ।।
मैं बिगरे अपनी मति खाई। मेरे भर्मि भूलो मति काई ।।
सो वौरा आपु न पछाने । आप पछानै त एकै जाने ।।
अबहिं न माता सु कबहुँ न भाता।कहि कवीर राम रँगि राता।।१८७॥

विनु मत सती होइ कैसे नारि । पंडित देखहु रिदै बीचारि ॥
प्रोति बिना कैसे वधै मनेह । जव लग रस तब लग नहि नेह ॥
साह निसत्त करै जिय अपन। सो रमय्य को मिले न स्वपनै ।।
तन मन धन गृह सौपि सरीरू । सोई सोहागनि कहै कबीरू ॥१८८।।