दुनियाँ भाँडा दुःख का भरी मुँहा मुँह मूष ।
अदया अलह राम की कुरहै ऊँणी कूष ॥
संसार का यह दुःख मायाकृत है। परंतु जो लोग माया में
लिपटे रहते हैं, वे इस दुःख में पड़े हुए भी उसे समझ नहीं सकते।
इस दुःख का ज्ञान उन्हों को हो सकता है जिन्होंने मायात्मक
प्रज्ञानावरण हटा दिया है। माया में पड़े हुए लोग तो इस दुःख
को सुख ही समझे रहते हैं,-
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै ।
दुखिया दास कबीर है, अगै अरु रोवै ।।
कबीर का दुःख अपने लिये नहीं है, वे अपने लिये नहीं रोते,
संसार के लिये रोते हैं, क्योंकि उन्होंने साई के सब जीवों के
लिये अपना अस्तित्व समर्पित कर दिया था, संसार के लिये ईसा-
मसीह की तरह उन्होंने अपने प्रापको मिटा दिया था।
____माया में पड़ा हुआ मनुष्य अपनी ही बात सोचता रहता है,
इसी से वह परमात्मा को नहीं पा सकता। परमात्मा को पाने के
लिये इस 'ममता' को छोड़ना पड़ता है-
नब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिँ।
इसी लिये ज्ञानी माया का त्याग प्रावश्यक बताते है। परंतु
माया का त्याग कुछ खेल नहीं है। बाहर से वह इतनी मधुर
जान पड़ती है कि उसे छोड़ते ही नहीं बनता-
मीठी मीठी माया तजी न जाई।
'अग्यानी पुरिष को भोलि भोलि खाई ॥
माया ही विषय वासनाओं को जन्म देती है-
इक डाइन मेरे मन बसे । नित उठि मेरे जिय को उसै ।
या डाइन के लरिका पाँच रे । निसि दिन मोहि नचावे नाच रे ॥
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