माया के ये पाँच पुत्र काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर
हैं। मनुष्य के अधःपात के कारण ये ही हैं। प्रात्मा की फार-
मात्मिकता को यहीं व्यवधान में डालते हैं। अतएव परम तत्त्वा-
र्थियों को इनसे सावधान रहना चाहिए-
पंच चोर गढ़ मंझा, गढ़ लू, दिवस अरु समा ।
नौ गढ़पति मुहकम होई, तो लूटि न सके कोई ॥
माया ही पाषंड की जननी है। अतएव माया का उचित
स्थान पाषंडियों के ही पास है। इसी लिये माया को संबोधन
कर कबीर कहते हैं-
तहाँ जाहु जहँ पाट पटंबर, अगर चंदन घसि लीना।
कर्मकांड को भी कबीर पाषंड ही के अंतर्गत मानते हैं, क्योंकि
परमात्मा की भक्ति का संबंध मन से है, मन की भक्ति तन को स्वयं
ही अपने अनुकूल बना लेगी, भक्ति की सच्ची भावना होने से कर्म
भी अनुकूल होने लगेंगे परंतु कंवल बाहरी माला जपने अथवा
पूजा पाठ करने से कुछ नहीं हो सकता। यह तो मानो और भी
अधिक माया में पड़ना है-
जप तप पूजा अरचा जोतिग जग बौराना।
कागद लिखि लिखि जगत मुलांना मन ही मन न समाना ॥
इसी लिये कबोर ने 'कर का मनको छाँड़ि के, मन का मनका '
फेर का उपदेश दिया है। उनका मत है कि जो माया ऋषि,
मुनि, दिगंबर, जोगी और वेदपाठी ब्राह्मणों को भो घर पछाड़ती है,
वहो- 'हरि भगतन के चैरी' है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद,
मत्सर प्रादि माया के सहचारियों का मिट जाना 'हरि भजन' का
प्रावश्यक अंग है-
राम भजै सो जानिये, जाकै आतुर नाहीं ।
सत संतोष लीये रहैं, धीरज मन माहीं॥
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५१
दिखावट
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३६)