और भारत में स्त्रियों के ही मत्थे अधिक मढ़ी जाती है। वहाँ प्रेमी
प्रिया को अपना प्रेम जताने के लिये उत्कट उद्योग करते हैं, और यहाँ
प्रेमिका विरह से व्याकुल होकर मुरझाए हुए फूल की तरह अपनी
सत्ता तक मिटा देती है। इसी से वहाँ उपासक की पुरुष रूप में
और यहाँ स्त्री रूप में भावना की गई है। परंतु कबीर के सूफियाना
भावों में भी भारतीयता कूट कूटकर भरी हुई है।
इस प्रकार निर्गुणवाद और सगुणवाद की एकेश्वरवाद से
बाहरी समता रखनेवाली बातों के सम्मिश्रण और उसके साथ प्रेम-
तत्त्व के योग से कबीर की भक्ति का निर्माण हुआ। कवोर का
विश्वास है कि भक्ति से मुक्ति हो जाती है-
कहै कबीर संसा नाही भगति मुगति गति पाइ रे।
परंतु भक्ति निष्काम होनी चाहिए। परमात्मा का प्रेम अप-
स्वार्थ की पूर्ति का साधन नहीं है, मनुष्य को यह न सोचना
चाहिए कि उससे मुझ कोई फल मिलेगा। यदि फल की कामना
हो गई, तो वह भक्ति भक्ति न रह गई और न उससे सत्य की प्राप्ति
ही हो सकती है-
जब लग है बैकुंठ की प्रासा । तब लग न हरि चरन निवासा ॥
ब्रह्म लौकिक वासनाओं से परे है। व्यक्तिगत उच्चतम साधना
से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है, वह स्वयं भक्त के लिये विशेष
चिंतित नहीं रहता। क्योंकि भक्त भी ब्रह्म ही है। वह किसी की
सहायता की अपेक्षा नहीं रखता, उसे अपने ब्रह्मत्व की अनुभूति भर
कर लेनी पड़ती है जो, जैसा कि हम देख चुके हैं, कोई खेल नहीं
है। इसी लिये ब्रह्म को अवतार धारण करने की प्रावश्यकता नहीं
रह जाती। जो कबोर मनुष्य से ऐहिक अंश छुड़ाकर उसे ब्रह्मत्व
तक पहुँचाना चाहते हैं, उनकी ब्रह्म में लौकिक भावनाओं का समा-
वेश करके उसका प्रधःपात न करने की व्यग्रता स्वाभाविक ही है-
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५६
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