सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(४८)


और प्रियतम निर्जीव पत्थर नहीं हो सकते। माता के रूप में पर. मात्मा की भावना करते हुए वे कहते हैं-

हरि जननी मैं बालिक तेरा । कस नहिं बकसहु अवगुण मेरा ॥ अवतारवाद में यही सगुणवाद पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ है ।

कबीर में कई बातें ऐसी भी हैं जिनमें दिखाई देनेवाला विरोध केवल भाषा की प्रसावधानी से आया है। कबीर शिक्षित नहीं थे, इसलिये उनकी रचनाओं में यह दोष क्षम्य है।

 कबीरदासजी ने धार्मिक सिद्धांतों के साथ साथ उसकी पुष्टि

के लिये अनेक स्थानों पर लौकिक आचरण अथवा व्यवहारों का

         . वर्णन किया है। यदि उनकी वाणी का पूरा

व्यावहारिक सिद्धांत

         " पूरा विवेचन किया जाय तो यह स्पष्ट हो

जायगा कि उनकी साखियों का विशेष संबंध लौकिक प्राचरणों से है तथा पदों का संबंध विशेषकर धार्मिक सिद्धांतों तथा अंशत: लौकिक आचरण से है। लौकिक प्राचरण की इन बातों को भी दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, कुछ तो निवृत्तिमूलक हैं और कुछ प्रवृत्तिमूलक ।

 कबीर स्वतन्त्र प्रकृति के मनुष्य थे। उनके चारों ओर शारीरिक दासता का घेरा पड़ा हुआ था। वे इस बात का अनुभव करते थे कि शारीरिक स्वातंत्र्य के पहले विचार-स्वातंत्र्य आवश्यक है। जिसका मन ही दासता की बेड़ियों से जकड़ा हो, वह पांवों की जंजीरें क्या तोड़ सकेगा। उन्होंने देखा था कि लोग नाना प्रकार के अंध विश्वासों में फंसकर हीन जीवन व्यतीत कर रहे हैं। लोगों को इसी से मुक्त करने का उन्होंने प्रयत्न किया। मुसलमानों के रोजा, नमाज, हज, ताजिएदारी और हिंदुओं के श्राद्ध,एकादशी,तीर्थव्रत, मंदिर सबका उन्होंने विरोध किया है। कर्मकांड की उन्होंने भर पेट.निंदा की है। इस बाहरी पाषंड के लिये उन्होंने