पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५४)


मुख्यतया उल्लेख किया है पर इससे यह न समझना चाहिए कि भारतवर्ष में प्रचलित और धर्मो से वे परिचित नहीं थे। वे कहते हैं- अरु भूले पटदरसन भाई । पाषंड भेष रहे लपटाई । जैन बोध औरे साकत सैना । चारवाक चतुरंग। बिहूना ।। जैन जीव की सुधि न जाने । पाती तोरी देहुरै पाने । इससे ज्ञात होता है कि अन्य धर्मो से भी उनका परिचय था, पर कहाँ तक उनके गूढ़ रहस्यों को वे समझते थे यह नहीं विदित होता। जहाँ तक देखा जाता है, ऐसा जान पड़ता है कि ऊपरी बातों पर ही उन्होंने विशेष ध्यान दिया है। मार्मिक तात्त्विक बात तक ये नहीं गए हैं । ईसाई धर्म का उनके समय तक इस देश में प्रवेश नहीं हुआ था पर विलाइत का नाम उनकी साखी में एक स्थान पर अवश्य आया है. ।' बिन बिलाइत बड़ राज' । यह निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि 'बिलाइत' से उनका यूरोप के किसी देश से अभिप्राय था अथवा केवल विदेश से। कबीरदास जी ने शाक्तों की बड़ी निंदा की है। जैसे- बैश्नों की छपरी भली, ना साकत का बड़ाव । सापत ग्राभण मति मिलै, बैसना मिलै चंडाल । अंक माल दे भेटिये मानौं मिले गोपाल ॥ कबोर रहस्यवादी कवि हैं। रहस्यवाद के मूल में अज्ञात शक्ति की जिज्ञासा काम करती है। संसार चक्र का प्रवर्तन किसी अज्ञात शक्ति के द्वारा होता है, इस बात का अनुभव ' मनुष्य अनादि काल से करता चला पाया है। उस अज्ञात शक्ति को जानने की इच्छा सदैव मनुष्य को रही है और रहेगी। परंतु वह शक्ति उस प्रकार स्पष्टता से नहीं दिखाई दे सकती जिस प्रकार जगत् के अन्य दृश्य रूप; और न उसका ज्ञान ही उस प्रकार साधारण विचार-धारा के द्वारा हो सकता है जिस प्रकार इन रहस्यवाद