पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/७७

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रहना ही भला लगता है। कबीर ऐसे लोगों की परितुष्टि की परवा कैसे कर सकते थे,जिनको निरपेक्षी के प्रति होनेवाला उनका प्रेम भी शुष्क लगता है। प्रेम की पराकाष्ठा आत्म-समर्पण का मानो काव्य जगत् में कोई मूल्य ही नहीं है।

कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर बाहर से अलंकारों का

मुलम्मा नहीं चढ़ाया है। जो अलंकार उनमें मिलते भी हैं वे उन्होंने खोज खोजकर नहीं बैठाए हैं। मानसिक कलाबाजी और कारीगरी के अर्थ में कला का उनमें सर्वथा अभाव है। 'वे सिर पैर की बातों', 'वायवी अवस्तुओं' का स्थान और नाम निर्देश कर देने को कवि-कर्म कहकर शेक्सपियर ने कवियों को सन्निपात या पागलपन में वे सिर पैर की बातें बकनेवालों की श्रेणी में रख दिया है। जिन कवियों के संबंध में 'किं न जल्पंति' कहा जा सकता है,उन्ही का उल्लेख किं न खादंति' वाले वायसों के साथ.हो सकता है। सच्ची कला के लिये तथ्य आवश्यक है। भावुकता के दृष्टिकोण से कला आडंबरों के बंधन से निर्मुक्त तथ्य है। एक विद्वान् कृत इस परिभाषा को यदि काव्य क्षेत्र में प्रयुक्त करें तो बहुत कम कवि सच्चे कलाकारों की कोटि में आ सकेंगे। परंतु कबीर का आसन उस ऊँचे स्थान पर अविचल दिखाई देता है।'यदि सत्य के खोजी कबीर के काव्य में तथ्य को स्वतंत्रता नहीं मिलती तो और कहीं नहीं मिल सकती! कबीर के महत्त्व का अनुमान इसी से हो सकता है।

 कबीर के काव्य में नीचे लिखी हुई खटकनेवाली बातें भी हैं

जिनकी ओर स्थान स्थान पर संकेत करते आए हैं-

 (१)एक ही बात को उन्होंने कई बार दुहराया है जिससे

कहीं कहीं रोचकता जाती रही है।