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(२) उनके ज्ञानीपन की शुष्कता का प्रतिबिंब उनकी भाषा पर
अक्खड़पन होकर पड़ा है।
(३) उनकी आधी से अधिक रचना दार्शनिक पद्य मात्र है
जिसकी कविता नहीं कहना चाहिए।
(४) उनकी कविता में साहित्यिकता का सर्वथा अभाव है।
थोड़ी सी साहित्यिकता आ जाने से परंपरानुबद्ध रसिकों के लिये उपालंभ का स्थान न रह जाता।
(५) न उनकी भाषा परिमार्जित है और न उनके पद्य पिंगल-
शास्त्र के नियम के अनुकूल है।
कबीरदास छंदःशास्त्र से अनभिज्ञ थे, यहाँ तक कि वे दोहों को पिंगल की खराद पर न चढ़ा सके। डफली बजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकल गया, वही ठीक था। मात्राओं के घट बढ़ जाने की चिता करना व्यर्थ था। पर साथ ही कबीर में प्रतिभा थी, मौलिकता थी,उन्हें कुछ संदेसा देना था और उसके लिये शब्द की मात्रा गिनने की आवश्यकता न थी, उन्हें तो इस ढंग से अपनी बातें कहने की आवश्यकता थी जो सुननेवालों के हृदयों में पैठ जाय और पैठकर जम जायँ । जिसपर वह हिन्दी कविता के प्रारंभ के दिन थे। पर आजकल के रहस्यवादी काव्यों में न प्रतिभा के दर्शन होते हैं और न मौलिकता का आभास मिलता है। केवल ऊटपटांग कह देने और भाषा तथा पिंगल की उपेक्षा दिखाने ही में उन आवश्यक गुणों के अभावों की पूर्ति नहीं हो सकती। कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है क्योंकि वह
खिचड़ी है। कबीर की रचना में कई भाषाओं के शब्द मिलते हैं,
परंतु भाषा का निर्णय अधिकतर शब्दों पर भाषा निर्भर नहीं है। भाषा के आधार क्रियापद,
संयोजक शब्द तथा कारक चिह्न हैं जो वाक्य-विन्यास की विशेष-