पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/७९

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ताओं के लिये उत्तरदायी होते हैं। कबीर में केवल शब्द ही नहीं क्रियापद कारक चिह्नादि भी कई भाषाओं के मिलते हैं, क्रियापदों के रूप अधिकतर ब्रजभाषा और खड़ी बोली के हैं। कारक चिह्नों में से कै, सन, सा आदि अवधी के हैं,कौ ब्रज का है और थैं राजस्थानी का । यद्यपि उन्होंने स्वयं कहा है-'मेरी बोली पूरबी' तथापि खड़ी, ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, अरबी-फारसी आदि अनेक भाषाओं का पुट भी उनकी उक्तियों पर चढ़ा हुआ है। 'पूरबी' से उनका क्या तात्पर्य है,यह नहीं कह सकते। उनका बनारस-निवास पूरबी से अवधी का अर्थ लेने के पक्ष में है; परंतु उनकी रचना में बिहारी का भी पर्याप्त मेल है,यहाँ तक कि मृत्यु के समय मगहर में उन्होंने जो पद कहा है उसमें मैथिली का भी कुछ संसर्ग दिखाई देता है। यदि 'बोली' का अर्थ मातृभाषा लें और 'पूरबी' का बिहारी तो कबीर के जन्म के विषय पर एक नया ही प्रकाश पड़ जाता है! उनका अपना अर्थ जो कुछ हो,पर पाई जाती हैं उनमें अवधी और बिहारी, दोनों बोलियाँ।

 इस पँचमेल खिचड़ी का कारण यह है कि उन्होंने दूर दूर के

साधु-संतों का सत्संग किया था जिससे स्वाभाविक ही उन पर भिन्न भिन्न प्रांतों की बोलियों का प्रभाव पड़ा।

 खड़ी बोली का पुट इस दोहे में देखिए-
       कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ।
       राम कहे भला होइगा, नहिंतर भला होइ ।।
       श्राऊँगा न जाऊँगा, मरूँगा न जीऊँगा।
       गुरु के सबद रमि रमि रहूंगा ॥ .

इसमें शुद्ध खड़ी बोली के दर्शन होते हैं। 'जब लगि धसै न आभ' में धसै ब्रजभाषा का है और आभ फारसी के प्राव का बिगड़ा हुआ रूप है। आगे लिखे दोहे में