पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(६९)

है जैसे प्रकट का प्रगट । कबीर ने मनमाने ढंग से भो ऐसे परि- वर्त्तन किए हैं। उपकारी का उन्होंने उपगारी बनाया है। संस्कृत के महाप्राण अक्षर प्राकृत और अपभ्रंश में प्राय: ह रह जाते हैं जैसे शशधर से ससिहर। कोर में इसका विपर्यय भी मिलता है। उन्होंने दहन को दामन कहा है। फारसी के एक ही शब्द का हमने, ऊपर उदाहरण दिया है। यत्र तत्र फारसी अरबी के शब्द तो उनमें मिलते ही हैं उनके कुछ पद भी ऐसे हैं जिनमें अरबी और फारसी शब्दों की ही भरमार है। उदाहरण के लिये उनकी पदावली का २५८ वा पद ले लीजिए जिसकी दो पंक्तियां हम यहाँ "वृत करते हैं- हम रात रहबग्दु समां, मैं खुर्दा सुमां बिसियार । हम जिमीं असमान खलिक, गुद मुसकिल कार ॥ हम कह चुके हैं कि कबीर पढ़े लिखे नहीं थे इसी से वे बाहरी प्रभावों के बहुत अधिक शिकार हुए। भाषा और व्याकरण की स्थिरता उनमें नहीं मिलती। या यह भी सम्भव है कि उन्होंने जान बूझकर अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग किया हो। अथवा शब्द-भांडार की कमी के कारण जब जिस भाषा का सुना सुनाया शब्द उनके सामने आ गया हो उन्होंने अपनी कविता में रख दिया हो। शब्दों को उन्होंने तोड़ा मरोड़ा भी बहुत है। सन को सनि, सनां, सूं-चाहे जिस रूप में तोड़ मरोड़कर उन्होंने आवश्यकता- नुसार अपनी उक्तियों में ला बैठाया है। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में अक्खड़पन है और साहित्यिक कोमलता या प्रसाद का सर्वथा प्रभाव है। कहीं कहीं उनको भाषा बिलकुल गँवारू लगती है, पर उनकी बातों में खरेपन की मिठास है जो उन्हीं की विशेषता है और उसके सामने यह गँवारपन डूब जाता है।