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कबीर-ग्रंथावली
(१) साखी
(१) गुरदेव को अंग
सतगुर सवांन को सगा,सोधी सई न दाति । हरिजी सवांन को हितू ,हरिजन सई न जाति ॥ १ ॥ बलिहारी गुर पापणौं,घौं हाड़ो के बार। जिनि मानिष तैं देवता,करत न लागी बार ॥ २ ॥ सतगुर की महिमा अनॅत,भनँत किया उपगार । लोचन प्रनँत उघाडिया,प्रनंत दिखावणहार ।। ३ ॥ राम नाम के पटंतरै, देवे को कुछ नाहि । क्या ले गुर संतोषिए,हाँस रही मन माहि ॥ ४ ॥ सतगुर के सदकै करूं,दिल प्रपणी का साछ। कलियुग हम स्यूं लड़ि पड़या,मुहकम मेरा बाछ॥ ५ ॥ सतगुर लई कर्माण करि, बांहण लागा तीर । एक जु बाह्या प्रीति सूं,भीतरि रह्या सरीर ॥ ६ ॥ सतगुर साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक । लागत ही मैं मिलि गया,पड़या कलेजै छेक॥ ७ ॥
(२) क-ख-देवता के भागे 'कथा' पाठ है जो अनावश्यक है। (५) स-सदफै करौं। स-साच । सुक मिलाने के लिये 'सार'
'सार' लिखा है।