पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/८६

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कबीर-ग्रंथावली


सतगुर मारया बाण भरि, धरि करि सुधी मूठि ।
अंगि उघाडै लागिया,गई दवा सूं फूटि ॥८॥
हँसै न बोलै उनमनों,चंचल मेल्ह्या मारि ।
कहै कबीर भोतरि भिद्या,सतगुर के हथियारि ॥६॥
गूंगा हूवा बावला, बहरा हूवा कान ।
पाऊं थैं पंगुल भया,सतगुर मारया बाण ॥ १० ॥
पीछैं लागा जाइ था,लोक बेद के साथि ।
आगैं थैं सतगुर मिल्या,दीपक दीया हाथि ।। ११ ॥
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट ।
पूरा किया बिमाहुणां, बहुरि न आँवों हट्ट ॥ १२ ॥
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बोसरि जाइ ।
जब गोबिंद कृपा करी,तब गुर मिलिया प्राइ ।। १३ ।।
कबीर गुर गरवा मिल्या,रलि गया था लूंण ।
जाति पाँति कुल मब मिटे,नाँव धरौंग कौंण ॥ १४ ।।
जाका गुर भी अंधला,चेला खरा निरंध ।
अंधै अंधा ठेलिया,दून्यू कूप पड़त ॥ १५ ॥
नां गुर मिल्या न सिष भया,लालच खेल्या डाव ।
दून्यूं बूड़े धार मैं,चढ़ि पाथर की नाव ॥ १६ ॥
चौमाठि दीवा जोइ करि,चौदह चंदा मांहि ।
तिहिं घरि किसकौ चानिणों ,जिहि घरि गोबिंद नाहि ॥१७॥
निस अँधियारी कारणौं,चौरासी लख चंद ।
अति आतुर उदै किया,तऊ दिष्टि नहीं मंद ।। १८ ॥
( १२ ) क-ख-अघट, हट ।
( १३ ) क-गोव्यद
( १५ ) क-चेला हैजा चंद ( ? है गा अंध)
( १७ ) ख-चारिणौं।ख-तिं हि•••जिं हिं ।