पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/८८

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कबीर-ग्रंथावली

सतगुर साँचा सूरिवाँ,तातैं लोहिं लुहार ।
कसणो दे कंचन किया,ताइ लिया ततसार ॥ २८ ॥
थापणि पाई थिति भई,सतगुर दीन्हीं धीर ।
कबीर हीरा-बणजिया,मानसरोवर तीर ।। २६ ।।
निहचल निधि मिलाइ तत,सतगुर साहस धीर ।
निपजी मैं साझी घणां,बॉटै नहीं कबीर ॥ ३० ॥
चौपड़ि माँडी चौहटै,अरध उरध बाजार ।
कहै कबीरा राम जन,खेलौ संत बिचार ॥ ३१ ॥
पासा पकड़या प्रेम का,सारी किया सरीर ।
सतगुर दाव बताइया,खेलै दास कबीर ॥ ३२ ॥
सत गुर हम सूं रीझि करि,एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का,भीजि गया सब अंग ॥ ३३ ॥
कबीर बादल प्रेम का,हम परि बरष्या आइ ।
अंतरि भीगी आत्मां,हरी भई बनराइ ॥ ३४ ॥
पूरे सूं परचा भया,सब दुख मेल्या दूरि ।
निर्मल कीन्हीं आत्मांं,ताथैं सदा हरि ॥ ३५ ॥

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(२) सुमिरण को अंग


कबीर कहता जात हुँ,सुणता है सब कोइ ।
राम कहें भला होइगा,नहिं तर भला न होइ ॥ १ ॥


(·२८ ) ख-सतगुर मेरा सूरियां ।
( २६ ) इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
       कबीर हीरा बणजिया हिरदै उठी खाणि
       पारब्रह्म क्रिपा करी,सतगुर भये सुजांण ॥ .
( ३५ ) ख.में नहीं है।