बासुरि सुख नाँ रैंणि सुख,नाँ सुख सुपिनै माहिं ।
कबीर बिछुट्या रांम सूं,नौं सुख धूप न छाँह ॥ ४ ॥
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि,पंथी बूझै धाइ।
एक सबद कहि पीव का,कबर मिलैंगे आइ ॥ ५॥
बहुत दिनन की जोवती,बाट तुम्हारी राम ।
जिव तरसै तुझ मिलन कूं',मनि नाहीं विश्राम ॥ ६ ॥
विरहिन ऊठै भी पड़े,दरसन कारनि राम ।
मूवां पीछैं देहुगे,सो दरसन किहि काम ॥ ७ ॥
मूवां पोछैं जिनि मिलै,कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लोह सब,(तब) पारस कौणें काम ॥८॥
अंदेसड़ा न भाजिसी,संदेसौं कहियां ।
कै हरि आयां भाजिसी,कै हरि ही पासि गयां ॥ ९ ॥
आइ न सकौं तुझ पैं,सकूं तुझ बुलाइ ।
जियरा यौंही लेहुगे,बिरह तपाइ तपाइ ॥ १० ॥
यहु तन जालौं मसि करूं,ज्यूं धूवां जाइ सरग्गि ।
मति वै राम दया करौं,बरसि बुझावै अग्नि ॥ ११ ॥
यहु तन जालौं मसि करौं,लिखौं राम का नाउं ।
लेखणिं करूं करंक की,लिखि लिखि राम पठाउँ ॥ १२ ॥
कबीर पीर पिरावनीं,पंजर पीड़ न जाइ ।
एक ज पीड़ परीति की,रही कलेजा छाइ ॥ १३॥ .
चोट सतांणीं बिरह की,सब तन जर जर होइ।
मारणहारा जांणिहै,कै जिहिं लागी सोइ ॥ १४ ॥
कर कमाण सर साँधि करि,खैंचिजु मारया मांहि ।
भीतरि भिद्या सुमार है,जीवै कि जीवै नांहि ॥ १५ ॥
जबहूँ मारया खैंचि करि,तब मैं पाई जांणि ।
लागी चोट मरम्म की,गई कलेजा छांणि ॥ १६ ॥
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कबीर-गंथावली