बिरह कौ अंग
जिहि सरि मारी काल्हि,सो सर मेरे मन बस्या ।
तिहि सरि अजहूँ मारि,सर बिन सचपाऊं नहीं ॥ १७ ॥
विरह भुवंगम तन बसै,मंत्र न लागै कोइ ।
राम विवोगी ना जिवै,जिवै त बौरा होइ ॥ १८ ॥
बिरह भुवंगम पैसि करि,किया कलेजै घाव ।
साधू अंग न मोड़ही, ज्यूं भावै त्यूं खाव ॥१६॥
सब रंग तंतर बाबतन,बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै,कै साईं कै चित्त ॥ २० ।।
बिरहा बुरहा जिनि कहौं,बिरहा है सुलितान ।
जिस घटि बिरह न संचरै,सो घट सदा मसान ॥ २१ ॥
अंषड़ियां झांई पड़ी,पंथ निहारि निहारि ।
जीभड़ियां छाला पड़या,राम पुकारि पुकारि ॥ २२ ॥
इस तन का दीवा करौं,बाती मेल्यूं जीव ।
लोही सींचौं तेल ज्यू,कब मुख देखौं पीव ।। २३ ।।
नैनां नीझर लाइया,रहट बहै निस जाम ।
पपीहा ज्यूं पिव पिव करौं,कबरु मिलहुगे राम ॥ २४ ॥
अंषड़ियां प्रेम कमाइयां,लोग जांणैं दुखड़ियां ।
साईं अपणैं कारणैं,रोइ रोइ रतड़ियां ॥ २५ ॥
सोई प्रांसू सजणां,सोई लोक बिड़ांहि ।
जे लोइण लोंही चुवै,तौ जांणों हेत हिंयांहि ॥ २६ ॥
कबीर हसणां दूरि करि,करि रोवण सौं चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइए,प्रेम पियारा मित्त ॥ २७ ।।
जो रोऊं तो बल घटै,हँसौं तौ राम रिसाइ। .
मनही मांहि बिसुरणां,ज्यूं घुंण काठहि खाइ ।। २८॥
हंसि हँ सि कंत न पाइए,जिनि पाया तिनि रोइ ।
जे हाँसेंही हरि मिलै,तौ नहीं दुहागनि कोइ ॥ २६ ॥
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९३
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