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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९९

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परचा कौ अंग


हरि संगति सीतल भया, मिटी मोह की ताप । निस बासुरि सुख निध्य लह्या, जब अंतरि प्रगट्या पाप ॥३०॥ तन भीतरि मन 'मानियां, बाहरि कहा न जाइ । ज्वाला ते फिरि जल भया, बुझी वलंती लाइ ॥ ३१ ॥ तत पाया तन बीसरया, जब मनि धरिया ध्यान । तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान ॥ ३२ ॥ जिनि पाया तिनि सू गह गह्या, रसनां लागी स्वादि । रतन निराला पाईया, जगत ढंडौल्या बादि ।। ३३ ।। कबीर दिल स्याबति भया, पाया फल संम्रथ्य । मायर मांहि ढंढोलता, हीरै पड़ि गया हथ्थ ।। ३४ ॥ जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नांहि । मब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहि ।। ३५ ।। जा कारणि मैं ढूंढता, मनमुख मिलिया प्राइ। धन मैली पिव उजला, लागि नमको पाइ ।। ३६ ।। जा कारणि मैं जाइ था, सोई पाई ठौर । सोई फिरि प्रापण भया, जासूं कहता और ।। ३७ ॥ कबीर देख्या एक अंग, महिमा कही न जाइ। तेज पुंज पारस धीं, नैनूं रहा समाइ ।। ३८ ।। मानसरोवर सुभर जल, हंसा कलि कराहिं । मुकताहल मुकता चुनें, अब उड़ि अनत न जाहिं ।। ३६ ।। गगन गरजि अंमृत चवै, कदली कवल प्रकास । तहां कबीरा बंदिगी, के कोई निज दास ॥ ४० ॥ नींव बिहूंणां देहुरा, देह बिहूंणां देव । कबीर तहां बिलंबिया, करे अलष की सेव ॥ ४१ ॥ देवल माहैं देहुरी, तिल जेहै बिसतार । मांहैं पाती मांहिं जल, माह पूजणहार ॥ ४२ ॥