पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१०८ ) बिरहा आया दरस को कडुत्रा लागा काम । काया लागी काल होय मीठा लागा नाम ॥१६॥ हँस हँस कंत न पाइया जिन पाया तिन रोय । हाँसी खेले पिय मिलें कौन दुहागिन होय ॥१६॥ माँस गया पिंजर रहा ताकन लागे काग । साहेव आजहुँ न आइया मंद हमारे भाग ॥१६३।। अँखियाँ प्रेम बसाइया जनि जाने दुखदाय । नाम सनेही कारने रो रो रात विताय ।।१६४।। हवस करै पिय मिलन की औ सुख चाहै अंग । पीर सहे विनु पदमिनी पूत न लेत उछंग ।।१६५।। विहिन अोदी लाकड़ी सपचे औ धुंधुप्राय । छूट पड़ों या विरह से जो सगरो जरि जाय ॥१६६।। परवत परवत मैं फिरी नैन गँवायो रोय । सो वूटी पाई नहीं जाते जीवन होय ॥ १६७ ॥ हिरदे भीतर दव वलै धुआँ न परगट होय । जाके लागी सो लखै की जिन लाई सोय ॥१६८।। सवही तरु तर जाइके सव फल लीन्हो चीख । फिरि-फिरि माँगत कविर है दरसन ही की भीख ॥१६९॥ पिय विन जियतरसत रहै पल पल विरह सताय । रैन दिवस मोहिं कल नहीं सिसकसिलक जियजाय ॥१७० साँई सेवत जल गई मास न रहिया देह । साँई जब लगि सेइहों यह तन होय न बह ।।१७।। विरहा विरहा मत कहो विरहा है मुल्तान । जा घट विरह न संचरै सो घट जान मसान ॥१७॥ देखत देखत दिन गया निस भी देखत जाय । विरहिन पिव पात्र नहीं केवल जिय घबराय ॥१७३॥