पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११६

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( ११० ) क्या मुख लै विनती करौं लाज श्रावत है मोहिं । तुम देखत अवगुन करौं कैसे भावो तोहि ।।१८।। मैं अपराधी जनम का नख सिख भरा विकार । तुम दाता दुख-भंजना मेरी करो सम्हार ।।१८७॥ अवगुन मेरे वाप जी वकस गरीव-निवाज । जो मैं पूत कपूत हौं तऊ पिता को लाज ||१८८।। अवगुन किए तो बहु किए करत न मानी हार। भावें बंदा वकसिए भा गरदन मार ॥१८९।। साहेब तुम जनि वीसरो लाख लोग लगि जाहिं। हमसे तुमरे बहुत हैं तुम सम हमरे नाहि ।।१९०१ अंतरजामी एक तुम आतम के आधार । नो तुम छोड़ो हाथ तो कौन उतारै पार ॥१९॥ मेरा मन जो तोहिं सों तेरा मन कहिं और । कह कबीर कैसे निभै एक चित्त दुइ ठोर ।।१९२।। मन परतीत न प्रेम रस ना कछु तन में ढंग । ना जानौ उस पीव से क्योंकर रहसी रंग ॥१९३।। मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर । तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर ॥१९॥ 'तुम तो समरथ साँइयाँ दृढ़ करि पकरो वाँहि । धुरही लै पहुँचाइयो जनि छाँडो मग माहि ।।१९५।। - - सूक्ष्म मार्ग उत ते कोई न वाहुरा जासे दूम धाय । इत ने सवही जात है भार लदाय लदाय ॥१९॥ 'यार बुलावै भाव सो मोपे गया न जाय। 'धन मैली पिउ ऊजला लागि न सो पाय ।।१९७।।