पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१२९

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(११९ ) जो यह एक न जानिया बहु जाने का होव । एकै तें सव होत हैं सब से एक न होय ॥२९०।। सत पाए उस एक में डार पात फल फूल । अव कहु पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जब मूल ।।२९१॥ प्रीति बड़ी है. तुझ से बहु गुनियाला कंत । जो हँस बोलों और से नील रँगाओं दंत ॥२९२॥ कविरा रेख सिंदूर अरु काजर दिया न जाय । नैनन प्रीतम रमि रहा दूजा कहाँ समाय ।।२९३।। आठ पहर चौंसठ घड़ी मेरे और न कोय । नैना माहीं तू वसै नींद को ठौर न होय ।।२९४।। अव तो ऐसी है परी मन अति निर्मल कीन्ह । भरने का डर छाँड़िके हाथ लिंधोरा लीन्ह ॥२९५।। सती विचारी सत किया काँटों सेज विछाय । लै सूती पिय आपना चहुँ दिस अगिन लगाय ॥२९६।। सती न पीसै पीसना जो पीसै सो राँड़। साधू भीख न माँगई जो मागै सो भाँड़ ॥२६७।। सेज विछात्रै सुंदरी अंतर परदा होय । तन सौंपे मन दे नहीं सदासुहागिन सोय ।।२९८।। सत्गुरु सतगुरु सम को है सगा साधू सम को दात । हरि समान को हितू है हरिजन सम को जात ॥२९९॥ गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागौं पाय। वलिहारी गुरु आपने गोविद दियो बताय ॥३००॥ वलिहारी गुरु आपने घड़ि घड़ि सौ सौ वार । मानुष से देवता किया करत न लागी वारं ॥३०॥