पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१३४

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जीवन्मुक्त है रहै तजै खलक की आस । आगे पीछे हरि फिर क्यों दुख पाये दास ॥३५१॥ असज्जन संगति भई तो क्या भया हिरदा भया कठोर । नो नेजा पानी चढ़े तऊ न भीजे कोर ॥३५२॥ हरिया जाने रुखड़ा जो पानी का नेह । सूखा काठ न जानही केत, बूड़ा मेह ।।३५३॥ कविरा मृढ़क प्रानियाँ नख सिख पाखराश्रादि। वाहनहारा क्या करें यान न लागे ताहि ।।३५४॥ पसुवा सो पाला पन्यो रह रहु हिया न खीज । ऊसर बीज न ऊगसी घाले दुना बीज ।।३५५॥ कविरा चंदन के निकट नीम भी चांदन होय । चूड़े बाँस बड़ाझ्या यों जनि चूड़ो कोय ||३५॥ चाल बकुल की चलत है बहुरि कहावें हंस । ते मुक्ता कैसे चुनें . पर काल के फंस ॥३७॥ . साधू भया तो क्या भया माला पहिरी चार । बाहर भेल बनाइया भीतर भरी भंगार ॥३८॥ माला तिलक लगाद के भक्ति न आई हाय । दाढ़ी मूंछ मुँहार के चले दनी के साथ ||३५|| दादी मूंछ मुंदार के हया बोटम घोट। मन को क्यों नहिं दिए जामें भरिया गांट ||३१०॥ मुंह मुंडाप हरि मिल मय कार मेलि मुंहार। बार यार के मुंदने मेल न पट जाय 112 मगन मात्रा विगारिया को मानौ यार । मन को गंगा मंदिर जाम दिय for