पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१४०

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( १२६ ) कविरा संगत साधु की ज्यों गंधी का बास । जो कछु गंधी दे नहीं तो भी वास सुवास ॥३७५॥ मथुरा भाव द्वारिका भावे जा जगनाथ । साध सँगति हरि भजन बिनु कछू न आवै हाथ ॥३७६॥ ते दिन गए अकारथी संगति भई न संत । प्रेम विना पशु जीवना भक्ति विना भगवंत ॥३७॥ कविरा मन पंछी भया भात्रै तहवाँ जाय । जो जैसी संगति करै सो तैसा फल पाय ॥३७८॥ कविरा खाँई कोट की पानी पित्र न कोय । जाय मिलै जव गंग से सब गंगोदक होय ॥३७९॥ कुसंग जानि बूझि साँची तजै करै झूठि सो नेह । ताकी संगति हे प्रभू सपनेहूँ मति देह ॥३८०॥ तोही पीर जो प्रेम की पाका सेती खेल। काँची सरसों पेरिकै खली भया ना तेल ॥३८१॥ दाग जो लागा नील का सौ मन सावुन धोय । कोटि जतन परवोधिए कागा हंस न होय ।।३८२॥ मारी मरै कुसंग की केरा के ढिग वेर । वह हालै वह अँग चिरै विधि ने संग निवेर ||३८३॥ केरा तवहिन चेतिया जब ढिग लागी वेर । अव के चेते स्या भया काँटन लीन्हों घेरि ॥३८॥ - - सेवक और दास द्वार धनी के पड़ि रहै धका धनी का खाय । कबहुँक धनी निवाजई जो दर छाँडि न जाय ||३८५॥