पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१४३

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दासातन हिरदे नहीं नाम धरावे दास । पानी के पीए विना कैसे मिटै पियास ॥३८६॥

भुक्ति मुक्ति मागौं नहीं भक्ति दान दे मोहिं । और कोई याचौं नहीं निस दिन याची तोहिं ।।३८७॥

काजर केरी कोठरी ऐसा यह संसार । . वलिहारी वा दास की पैठिके निकसन-हार ॥३८८॥

अनराते सुख सोवना राते नींद न प्राय । ज्यों जल छूटे माछरी तलफत रैन विहाय ॥३८९॥

जा घट में साँई बसै सो क्यों छाना होय । जतन जतन करि दाविए तो उँजियाला सोय ॥३९०॥

सब घट मेरा साँइयाँ सूनी सेज न कोय । बलिहारी वा दास की जा घट परगट होय ॥३९॥

भेष

तत्व तिलक माथे दिया सुरति सरवनी कान । करनी कंठी कंठ में परसा पद निर्वान ||३९२॥

मन माला तन मेखला भय की करै भभूत । अलख मिला सब देखता सो जोगी अवधूत ।।३९३१

तन को जोगी सब करै मन को विरला कोय । सहजै सव विधि पाइए जो मन जोगी होय ||३९४॥

हम तो जोगी मनहिं के तन के हैं ते और । मन का जोग लगावते दसा भई कछु और ॥३९५॥

चेतावनी

कविरा गर्व न कीजिए काल गहे कर केस । ना जानौं कित मारिहै क्या घर क्या परदेस ॥३९॥